hindisamay head


अ+ अ-

कहानी

दिया तले अंधेरा

नाथूराम प्रेमी


पहिला परिच्‍छेद

"विमलप्रसाद, टौनहाल में आज जो स्‍त्री शिक्षा के विषय में व्‍याख्‍यान हुआ था, उसके विषय में तुम्‍हारी क्‍या राय है? महोपदेशक महाशय का यह विचार क्‍या ठीक है कि, लोग स्‍त्री शिक्षा को अच्‍छी नहीं समझते हैं और पुराने ढंग के लोग इसके विरुद्ध हैं, इसलिये स्‍त्री शिक्षा का यथेष्‍ट प्रचार नहीं होता है?"

"व्‍याख्‍यान तो अच्‍छा ही हुआ है। व्‍याख्‍याता की शक्ति भी प्रशंसा के योग्‍य है। परंतु उन्‍होंने जो इसी विषय पर ज्‍यादा जोर दिया कि, लोग स्‍त्री शिक्षा के विरुद्ध में हैं, सो मेरी समझ में ठीक नहीं। यह एक बाधक कारण अवश्‍य है, परंतु आज से 25 वर्ष पहिले इस विषय का जितना महत्‍व था, उतना अब नहीं रहा है। हमारे समाज में अब ऐसे लोगों की संख्‍या बहुत थोड़ी रह गई है, जो इसे बुरा समझते हैं और इसके विरुद्ध में कुछ प्रयत्‍न करते हैं। अब उद्योग करने का समय आ गया है। इस समय स्‍त्री शिक्षा का महत्‍व दिखलाकर लोगों को काम करने के लिये उत्‍तेजित करना चाहिए।"

यह सुनकर लक्ष्‍मीचंद्र ने कहा, "अच्‍छा आप ही बतलावें कि, स्‍त्री शिक्षा का प्रचार करने के लिये लोगों को किन किन कामों के लिये उत्‍तेजित करना चाहिये?"

विमलप्रसाद ने कहा, "मेरी समझ में प्रत्‍येक नगर और गांवों में स्त्रियों के लिये पाठशालायें खुलवाना चाहिये, और उनमें अच्‍छे लोगों की देखरेख में कुलीन सदाचारिणी शिक्षित स्त्रियों के द्वारा शिक्षा दिलवानी चाहिये। लोग अपनी बहू बेटियों को तथा कन्‍याओं को पाठशालाओं में पढ़ने के लिए भेजें, इस विषय में निरंतर उपदेश और प्रेरणा होना चाहिये। इसके सिवाय पढ़ी लिखी स्त्रियों का सत्‍कार करना, उन्‍हें पारितोषिक देकर उत्‍साहित करना, सभाओं तथा मेलों में शिक्षा की आवश्‍यकता पर उपदेश देना आदि अनेक उपाय हैं, जिनसे स्‍त्री शिक्षा का प्रचार हो सकता है।"

"ये प्रयत्‍न तो हमारे यहां बहुत दिन से हो रहे हैं। महासभा के और यंगमेंस एसोसियेशन के प्रत्‍येक अधिवेशन में स्‍त्री शिक्षा संबंधी प्रस्‍ताव रक्‍खे जाते हैं, अच्‍छे अच्‍छे पंडित और जेंटलमेन बड़े-बड़े लंबे चौड़े व्‍याख्‍यान फटकारते हैं, थोड़ी बहुत पाठशालायें भी खोली गई हैं, उनमें पारितोषिक वगैरह भी दिये जाते हैं, परंतु मुझे तो यह सब काम पोच ही दिखते हैं। स्‍त्री शिक्षा के प्रचार का सच्‍चा उपाय इनमें से एक भी नहीं है। पाठशालाओं में जो थोड़ी बहुत शिक्षा दी जाती है, वह स्‍त्री शिक्षा के असली उद्देश्‍य की पूर्ति नहीं कर सकती है। केवल हिंदी का लिखना बांचना आ जाने से अथवा ‘छोटे कंत का ख्‍याल’ वांचने योग्‍य विद्वता प्राप्‍त कर लेने से स्‍त्री शिक्षा लाभकारी नहीं हो सकती। हमारी समझ में तो इस अधकच्‍ची शिक्षा से उलटी हानि हो रही है, और होगी।"

विमलप्रसाद ने कहा - "आप जो कुछ कहते हैं, सो तो ठीक है, परंतु इसका उपाय क्‍या है? बिल्‍कुल नहीं होने से तो अच्‍छा है!"

"उपाय-उपाय क्‍या? वह तुम्‍हारे हाथ में है, मेरे हाथ में है - सबके हाथों में है। केवल इच्‍छा होनी चाहिये। प्रत्‍येक पुरुष को काम में लगना चाहिये। अभी तक यथार्थ में पूछो, तो अपने समाज में स्‍त्री शिक्षा के विषय में सच्‍ची स्‍फूर्ति नहीं हुई है। जो कुछ होता है, सब ऊपरी दिल से होता है। हमारे यहां प्रति वर्ष सैकड़ों सुशिक्षित लोग तैयार होते हैं, बीसों ग्रेज्‍युएट होते हैं और बीसों पंडित होते हैं, जो सारे देश का अथवा समाज का कल्‍याण करने के लिए कंठशोष करते हैं, परंतु विचार करो कि, यदि ये सब बातौनी जमाखर्च छोड़कर दुनियां भर की झंझटों से बरी होकर केवल एक अपने-अपने घर को ही सुधारने के लिये कटिबद्ध हो जावें, अपनी अपनी स्त्रियों को अपने समान विचारों वाली-सुशिक्षिता बनाने का प्रयत्‍न करें, तो कितना लाभ हो सकता है? परंतु हमारे भाइयों को यह विचार सूझे तब न? घर में अंधेरा रखकर हम बाहर उजेला करने के लिये दौड़ते हैं। जहां देखो, वहां ‘परोपदेशे पांडित्‍य’ दिखलाई पड़ता है।"

"भाई साहब, आपका यह विचार बहुत ही उत्‍तम है। बेशक यदि आज हम सब सुशिक्षत लोग अपने अपने घरों के सुधारने का बीड़ा उठा लेवें, तो आशातीत लाभ हो सकता है। हमारी भाभी साहबा को आपने जिस प्रकार से सुशिक्षिता बनाई हैं, उसे देखकर आपकी जहार मुख से प्रशंसा करने को जी चाहता है। किसी ने सच कहा है कि हजार बकबक करनेवालों से एक काम करनेवाला अच्‍छा होता है।"

"खैर, यह तो गई बीती बात है, अब चिंता तुम्‍हारी है। देखना है कि, तुम्‍हारा भाग्‍य कैसा चमकता है। तुम किसी सुशिक्षित भार्या को पाकर धन्‍य होते हो, अथवा मेरे ही समान अशिक्षिता को पाकर परिश्रम करने में दत्तचित्त होते हो। तुम्‍हारे भाईसाहब अच्‍छे विद्वान हैं, इससे तुम्‍हारा जीवन संबंध किसी बुद्धिमती के साथ ही जोड़ा जावेगा, ऐसा जान पड़ता है। मैं उस दिन बहुत प्रसन्‍न होऊंगा, जब तुम्‍हारे जोड़े को एकसा सुशिक्षित और कार्यदक्ष देखूंगा।" विमलप्रसाद के मुख पर किचिंत मुस्‍कुराहट तथा लज्जा की छाया दिखलाई दी। वे इसका कुछ उत्तर दिये बिना ही लक्ष्‍मीचंद्र के घर से उठकर चले आये। चलते-चलते लक्ष्‍मीचंद्र ने कहा - "खैर, टाइम बहुत हो गया है। इस समय जाओ, कल मैं इस विषय में और भी अपने विचार प्रकट करूंगा।

लक्ष्‍मीचंद्र और विमलप्रसाद में अतिशय गाढ़ स्‍नेह था। दोनों ही अच्‍छे, सुशिक्षित, सदाचारी, विचारशील और परोपकारी युवा थे। देश और समाज के हित की ओर उनका निरंतर लक्ष्‍य रहता था। दोनों ही इलाहाबाद कालेज में एल.एल.बी. का अभ्‍यास करते थे। दोनों ने निश्‍चय किया था कि, अंतिम परीक्षा में उत्‍तीर्ण होकर देश और समाज के लिये अपने जीवन का बहुत-सा भाग व्‍यय करेंगे। विमलप्रसाद बोर्डिंग हाउस में रहते थे, और लक्ष्‍मीचंद्र शहर के एक अच्‍छे मुहल्‍ले में कोठरी लेकर अपनी स्‍त्री रामदेई सहित रहते थे। विमलप्रसाद प्राय: हर रोज लक्ष्‍मीचंद्र के यहां आया करते थे, और घंटे आध घंटे देश हित की, समाज हित की तथा अन्‍यान्‍य उत्तमोत्तम विषयों की चर्चा किया करते थे। आज की बैठक में टौनहाल के व्‍याख्‍यान के संबंध में जो चर्चा हुई, उसे पाठक ऊपर बांच चुके हैं।

विमलप्रसाद बोर्डिंग को लौटे, परंतु उनके हृदय में विवाह संबंधी विचार तरंगों की प्रतिध्‍वनि उठने लगी। वे सोचने लगे - जीवन में विवाह करना सबसे महत्त्व का, जोखम का और सुख दु:ख की भवितव्‍यता का प्रश्‍न है। लोग इसे पुतला पुतलियों का खेल समझते हैं, परंतु यथार्थ में यह बड़े ही विचार का विषय है। देखो, लक्षमीचंद्रजी अपनी ही जैसी भार्या को पाकर कैसे सुखी हैं? मैंने उन दानों को अनेक ऊंचे विषयों पर विवाद करते देखा है। घर में कभी उदासीनता की अथवा लड़ाई-झगड़े की छाया भी नहीं देखी। दोनों सदा प्रसन्‍नचित्त रहते हैं। और उधर हमारे विद्वान भाईसाहब की दशा देखो। बेचारे कैसे दु:खी हैं? हमारी भाभी रूपवती है, बोलचाल में अच्‍छी है, बड़े घर की लड़की है, तो भी भाईसाहब कभी प्रसन्‍न नहीं रहते। क्‍यों? इसलिये कि, व‍ह शिक्षिता नहीं है। अशिक्षित भार्या से शिक्षित पुरुष को स्‍वप्‍न में भी सुख नहीं मिल सकता है। क्‍या मेरा विवाह किसी शिक्षिता के साथ होगा? होगा क्‍यों नहीं? मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि, अशिक्षिता के साथ मैं कभी विवाह नहीं करूंगा, चाहे जीवनभर अविवाहित रहूं। मुझे धन दौलत से - दहेज से कोई मतलब नहीं है। किसी गरीब की ही लड़की क्‍यों न हो, यदि वह वय: प्राप्‍त निरोगी सुंदरी और शिक्षिता होगी, तो मैं प्रसन्‍नता से विवाह कर लूंगा। इस प्रकार विचार तरंगों में आंदोलित होते हुए विमलप्रसाद बोर्डिंग में जा पहुंचे। उस रात और कुछ लिखना पढ़ना नहीं हुआ। इसी विषय में संकल्‍प विकल्‍प करते हुए उन्‍होंने निद्रादेवी का आश्रय ले लिया।

 

   दूसरा परिच्‍छेद

अनुमान दो महिने पीछे एक दिन सवेरे विमलप्रसाद के हाथ में चिट्ठी रसाने एक लिफाफा लाकर दिया। सिरनामा देखने से अपने बड़े भाई का पत्र जानकर उन्‍होंने उसे बड़ी आतुरता से खोला और पढ़ना शुरू किया। राजी खुशी के समाचारों के पश्‍चात् उसमें निम्‍नलिखित वाक्‍य लिखे हुए थे :

" * * * पठन पाठन में अंतर न पड़े, इसलिये इतने दिन मैं तुम्‍हारे विवाह की झंझट में नहीं पड़ा था। परंतु अब तुम्‍हारा विवाह शीघ्र कर देना चाहिए, ऐसा मेरा विचार हो रहा है। और घर में तो इसका रात दिन तकाजा ही रहता है। तुम्‍हारा जिस में हित हो, मैं वैसा ही संबंध मिलाने की खोज में हूं। अभी-अभी तीन चार स्‍थानों से संबंध आया है, और उनमें से दो मैंने पसंद भी किये हैं। परंतु घर के लोग उन दोनों को ही पसंद नहीं करते हैं। क्‍योंकि वहां से दहेज वगैरह अधिक मिलने की आशा नहीं है। परंतु अपने को दहेज की आवश्‍यकता नहीं है, लड़की अच्‍छी होनी चाहिए। इसलिए सुशिक्षिता लड़की के लिये ही मैं प्रयत्‍न कर रहा हूं। और जब कोई ऐसा संबंध मिल जावेगा, तब ही मैं इस वर्ष विवाह करूंगा। अपना अनुभव अपनी दृष्टि के सम्‍मुख होते हुए मैं तुम्‍हारा संबंध अशिक्षिता के साथ कभी नहीं करूंगा। तुम्‍हारे विचार मुझे मालूम हैं। उन विचारों को आचार का स्‍वरूप देने में जिससे सहायता पहुंच सकै, तुम्‍हें वही पत्‍नी चाहिए। सो जब मैं वैसी पत्‍नी के साथ तुम्‍हारा संबंध करा सकूंगा, तब ही अपने कर्तव्‍य की पूर्ति समझूंगा।"

भाई साहब का पत्र पढ़कर विमलप्रसाद अंग में फूले नहीं समाये। भाई साहब ने अपने को छोटे से बड़ा किया, अपने पढ़ाने के लिये पानी की तरह पैसा खर्च किया और अब अपनी इच्‍छानुसार कन्‍या की भी शोध में हैं, यह जानकर विमलप्रसाद को आनंद होना ही चाहिए। "थोड़े दिनों में लक्ष्‍मीचंद्र के समान अपनी भी अत्‍यंत संतोषकारक स्थिति होगी। जिस प्रकार हम दोनों मित्रों के एक से विचार हैं, उसी प्रकार हम दोनों की स्त्रियों के भी होंगे, इससे हम अपने विचारों को शीघ्र कार्य में परिणत कर सकेंगे," ऐसा उन्‍हें विश्‍वासपूर्वक जंचने लगा। इतने में भाभी साहबा के विचारों का जो चिट्ठी में इशारा था, उसका स्‍मरण हुआ। जिससे उन्‍हें शंका हुई कि, "कहीं भाभी साहबा कुछ उल्‍टा ही न कर धरें। परंतु उल्‍टा क्‍या करेंगी, विवाह तो मेरा होना है न? यदि कुछ गड़बड़ हुई, तो मैं एकदम इंकार कर दूंगा। बस झगड़ा मिट जावेगा। परंतु इस विषय में भाभी साहबा ऐसा उल्‍टा हठ करेंगी, ऐसा विश्‍वास तो नहीं है।" इस प्रकार के विचार करके विमलप्रसाद उठ खड़े हुए और कपड़े पहिनकर उन्‍होंने बाहर का रास्‍ता लिया।

पत्र का अभिप्राय मित्रवर को सुनाये बिना विमलप्रसाद को चैन कहां पड़ सकती थी। बस बोर्डिंग से निकलकर आप बिना कुछ यहां वहां देखे, सीधे लक्ष्‍मीचंद्र के घर पहुंचे। बड़े सवेरे ही आया देखकर लक्ष्‍मीचंद्र ने पूछा, क्‍यों विमलप्रसाद, आज तुम यहां कैसे? कुशल तो है?

"हां! कुशल ही है," यह कहकर विमलप्रसाद ने चिट्ठी निकालकर लक्ष्‍मीचंद्र के हाथ में दे दी। पत्र बांच चुकने पर विमलप्रसाद ने कहा - "देखा आपने, भाई साहब को मेरे विषय में कितनी चिंता है? अब तो आपकी इच्‍छा पूर्ण होने में कोई संदेह नहीं है?"

"इस चिट्ठी में संदेह के निराकरण के योग्‍य तो कुछ बात मुझे नहीं जान पड़ती। बल्कि इससे तो शंका बढ़ती है। जब तुम्‍हारी भाभी साहबा का हठ होगा, तब मुझे आशा नहीं है कि, तुम्‍हारे भाई उसमें जय प्राप्‍त कर सकेंगे। यदि हठ की मात्रा थोड़ी भी बढ़ी, तो भाभी साहबा की ही जीत होगी। इसलिये इस विषय में तुम्‍हें निश्चिंत नहीं रहना चाहिये - एक चिट्ठी के द्वारा अपने विचार स्‍पष्‍ट शब्‍दों में भाईसाहब को प्रकट कर देना चाहिये। उन्‍होंने जब स्‍वयं इस विषय को छेड़ा है, तब तुम्‍हारी ओर से उत्तर जाने में कुछ हानि नहीं है।"

विमलप्रसाद को यह सम्‍मति अच्‍छी जंची, परंतु भाई को पत्र में क्‍या लिखना चाहिये, यह उन्‍हें नहीं सूझा। "तेरे हित का सब प्रकार से खयाल किये बिना मैं कुछ भी नहीं करूँगा।" ऐसा वे लिखते हैं, इतने पर भी मैं उन्‍हें इसी विषय में लिखूं, यह उनका अपमान नहीं तो और क्‍या है? वारंवार यही विचार विमलप्रसाद के मन में आता था। इसलिये आज कल आज कल करते करते एक सप्‍ताह निकल गया। आठवें दिन उन्‍होंने कई घंटे में एक पत्र लिखा। उस समय उनके पास कागज की चिंदियों का ढेर पड़ा था, जिससे मालूम होता था कि, आप पहले 10-20 चिट्ठियां लिख लिखकर फाड़ चुके हैं! पत्र लिख चुकने पर आपको बड़ा भारी समाधान हुआ। मानों आपने एक बड़े भारी कार्य को समाप्‍त किया! लिफाफे को बंद करके डाकखाने में डालने के लिये आप तैयार ही हो रहे थे कि, तार के सिपाही ने एक तार लाकर हाथ पर रख दिया। तार भाई के पास से ही आया होगा, ऐसे विचार से उनका चित्त कुछ अस्‍वस्‍थ हुआ? उन दिनों जबलपुर में प्‍लेग हो रही थी, इससे "तार में क्‍या समाचार होंगे?" विमलप्रसाद ने कई मिनिट इसी की चिंता में निकाल दिये, परंतु बार बांचे बिना छुटकारा नहीं था, इसलिये उसे खोलना ही पड़ा। उसमें लिखा था –

"बहुत जल्‍दी चले आओ, तुम्‍हारे विवाह का निश्‍चय हुआ।"

तार का समाचार पढ़कर विमलप्रसाद ने लिखा हुआ पत्र पाकेट के हवाले किया और घड़ी में आठ बजे देखकर भोजनादि शीघ्रता से समाप्त करके वे 10 बजे की गाड़ी से जबलपुर को रवाना हो गये।

 

तीसरा परिच्‍छेद

प्रियवर मित्र लक्ष्‍मीचंद्रजी

उस दिन भाई साहब का अचानक तार आया, इसलिये मैं यहां चला आया। आठ बजे तार मिला और 10 बजे गाड़ी रवाना होती है, इसलिये मैं आपसे भी न मिल सका, और सीधा स्‍टेशन आकर गाड़ी पर सवार हो गया। इसके लिये मुझे क्षमा करें। यहां आकर देखा, तो मेरे विवाह की संपूर्ण तैयारी हो चुकी थी। बुधवार को पाणिग्रहण होने वाला था, और मैं सोमवार को सवेरे यहां आया। भोजनादि कर चुका, दो पहर हो चुके, परंतु तब तक मुझे यह भी मालूम नहीं हुआ कि, लड़की किसकी है। भाभी साहबा तैयारी की इतनी हड़बड़ी में थी, कि इच्‍छा होने पर भी मैं उनसे इस विषय में कुछ पूछ न सका। भाई साहब सवेरे से ही कहीं चले गये थे। आने पर उनकी सदा की नाईं मुझसे बोलने चालने की इच्‍छा नहीं दिखाई दी। इसके सिवाय उस समय उनके चेहरे पर थोड़ी सी उदासीनता की छाया भी दिखती थी। इससे उनके समीप यह चर्चा छेड़ने का मुझे साहस नहीं हुआ। तब मुझे एक युक्ति सूझी। मैंने सोचा कि, जो मैंने इलाहाबाद में उनके लिये पत्र लिखा था, और तार आ जाने के कारण डांक में नहीं डाला था, उसे उनके पास पहुंचा दूं। पत्र बांचने पर वे यह विषय छेड़ेंगे, और फिर मुझे जो कुछ पूछना होगा, मैं पूछ लूंगा। ऐसा विचार करके मैंने वह पत्र उनके पास भेज दिया। तत्‍काल ही उन्‍होंने मुझे अपनी एकांत कोठरी में बुलाया। मैंने जाकर देखा कि, भाई साहब मेरे पत्र को अपने संमुख रक्‍खे हुए और अतिशय खिन्‍नमुद्रा किये हुए बैठे हैं। मुझे दिखेते ही वे बोले, "विमल, यह पत्र तुमने मुझे पहले ही क्‍यों नहीं भेजा? तुम्‍हारे विवाह का निश्‍चय अवश्‍य ही हुआ है, परंतु मैं जानता हूं कि, उसमें मैंने हित के बदले तुम्‍हारा अहित ही किया है। मैंने अपनी ओर से शक्ति भर प्रयत्‍न किया, परंतु घर की ओर से जो हठ किया गया, वह नहीं छूटा। और अंत में लाला बिहारीलालजी की लड़की के साथ संबंध निश्‍चय करना पड़ा। लड़की खूबसूरत है। अवस्‍था भी योग्‍य अर्थात् 14-15 वर्ष की है। दहेज अच्‍छा मिलेगा। परंतु बिहारीलालजी का घराना बिल्‍कुल पुराने ढंग का है। स्‍त्री की शिक्षा की ओर उनका कुछ भी ध्‍यान नहीं है। बल्कि इसे वे एक पाप समझते हैं। स्त्रियों को बढि़यां बढि़यां कपड़ों और कीमती जेवरों से लदी हुई रखना, इसी को वे अपना कर्तव्‍य समझते हैं। सभा पाठशालादि कार्यों से उन्‍हें घृणा है। मंदिर बनवाने और प्रतिष्‍ठादि कराने में वे लाखों रुपए खर्च कर चुके हैं। लड़की स्‍यानी हो चुकी थी, एक महीने बाद सिंहस्‍थ लगती थी, आगे दूसरा मुहूर्त नहीं था, इसलिये उन्‍होंने बड़े आग्रह से मुझे दबाकर इस संबंध के लिए राजी किया है। इतना अच्‍छा है कि, उनका घराना बहुत कुलीन है। इतने बड़े धनिक होने पर भी उनके घर की कभी किसी प्रकार की अपकीर्ति नहीं सुनी है। ये सब बातें मैं तुम्‍हें किस तरह समझाऊं, इसी विचार में था कि तुम्‍हारा पत्र मिला।" भाई साहब का कथन समाप्‍त हो चुकने पर मैं अपने मुंह से एक भी शब्‍द निकाले बिना उठ खड़ा हुआ और बड़ी कठिनाई से अपनी कोठरी तक पहुंचा। मन में विचारों की उथल पुथल मच रही थी। अब क्‍या करना चाहिये? मेरे सब विचारों का अब क्‍या होगा? मेरे द्वारा समाज का क्‍या हित होगा? भाई साहब का जैसा जोड़ा मिला है, वैसा ही अब यह मेरा हुआ। इसकी अपेक्षा जबलपुर से हमेशा के लिये जुहार कर लेना क्‍या बुरा है? मेरी इच्‍छा के विरुद्ध उन्‍होंने यह इतना प्रपंचजाल क्‍यों फैलाया? पर इसमें उनका क्‍या दोष है? बेचारों ने निरुपाय होकर किया है। तब इस समय यहां से पलायन करके उनकी कीर्ति में बट्टा लगाना अच्‍छा नहीं है। जो हुआ है, सो भाग्‍य से हुआ है। अब तो इस विषय में उनकी सहायता करना ही मेरा कर्तव्‍य है। ऐसा विचार मेरे जी में आया, इस लिये मैं कन्‍या संबंधी कुछ अधिक शोध करने के झंझट में न पड़कर जो होगा, सो देखा जाएगा, यह निश्‍चय करके स्‍वस्‍थ हो रहा। तदनुसार कल मेरा विवाह हो गया! भाई साहब की इच्‍छा है कि, शीघ्र ही इलाहाबाद में घर लेना चाहिये। परंतु मुझे अब क्‍या करना चाहिये, वह कुछ भी नहीं सूझता है। उसकी शिक्षा की मुझे सर्वथा आशा नहीं है। और मैं इस विषय में कुछ भी प्रयत्‍न न करने का निश्‍चय कर चुका हूं। आप जहां रहते हैं, वहीं मेरे लिये एक जगह देख रखिये। आगे पीछे इलाहाबाद ले आने का निश्‍चय हुआ, तो वहीं रहूंगा। आप के साथ रहने से शायद भाभी साहबा के सहवास का कुछ असर पडे़, तो पड़ै। नहीं तो मेरे भाग्‍य में क्‍या है, सो तो दिखता ही है। आपके पूर्व के संपूर्ण विचार अब मुझे स्‍वप्‍न सरीखे मालूम पड़ते हैं। "यच्चिंतितं तदिह दूरतरं प्रयाति यच्‍चेतसापि न कृतं तदिहाभ्‍युपैति।"

इति शभ्

आपका दु:खी मित्र –

विमल

 

चौथा परिच्छेद

विवाह होने के छह महिना पीछे विमलप्रसाद ने लक्ष्‍मीचंद्र के पड़ोस में ही एक मकान किराये से लिया। रामदेई ने नर्मदाबाई के घर की पहले से ही सब तैयारी कर रक्‍खी थी, इसलिये उन्‍हें अपने नये संसार के लिये विशेष झंझटें नहीं उठानी पड़ीं। विमलप्रसाद का अपनी पत्‍नी से अन्‍य किसी विषय में वैमनस्‍य नहीं था। वे उसके साथ अच्‍छी तरह बर्ताव करते थे। परंतु लिखने पड़ने के विषय में कभी बात भी नहीं निकालते थे। विवाह के थोड़े दिन पीछे उन्‍होंने अपनी पत्‍नी से जरा निरसता के साथ पूछा था कि, "तुझे लिखना पढ़ना आता है, या नहीं? यदि नहीं आता है, तो आगे सीखने का विचार है, या नहीं?" इसके उत्तर में नर्मदाबाई ने कहा था, "मुझे कुछ भी नहीं आता है और उसके बिना मेरा कुछ अटका भी नहीं है।" विमलप्रसाद ने इस रूक्ष उत्तर से अपना बड़ा भारी अपमान समझकर पढ़ने लिखने की चर्चा करना छोड़ दी थी। विमलप्रसाद की यह उदासीन वृत्ति देखकर लक्ष्‍मीचंद्र और रामदेई को बहुत आश्‍चर्य होता था। वे सोचते थे, विमलप्रसाद का इस विषय में इतना हठ क्‍यों है? जो हुआ सो हुआ, अब वह वापिस नहीं हो सकता है। फिर इन्‍हें अपनी पत्‍नी को ज्ञानसंपन्‍ना करने का प्रयत्‍न क्‍यों नहीं करना चाहिये? एक दिन मौका पाकर उन्‍होंने कहा – विमलप्रसाद, यह तुमने कौन सा मार्ग स्‍वीकार किया है? विवाह से पहले के संपूर्ण विचार जान पड़ता है, तुम भूल गये! विमलप्रसाद ने कहा, "नहीं, अभी तो नहीं भूला हूं। परंतु यदि उन्‍हें जल्‍दी भूल जाता, तो अच्‍छा होता।"

"क्‍यों भला! तुम इतने हताश क्‍यों हो गये हो? कुछ भी प्रयत्‍न न करके इस तरह से कष्ट से काल बिताना मेरी समझ में ठीक नहीं है। और इसमें तुम्‍हारी बहू का भी क्‍या दोष है? अपने पूर्व में निश्चित किये हुए प्रयत्‍न में तुम फिर क्‍यों नही लगते?"

"भाई साहब, इस विषय में मैं अपने भाग्‍य की परीक्षा कर चुका हूं। मैं हताश हुआ हूं, सो कुछ करके ही हुआ हूं। मुझे चोखा उत्तर मिल चुका है कि- "मुझे लिखना पढ़ना नहीं आता है और उसके बिना मेरा कुछ अटकता भी नहीं है।" फिर जहां इच्‍छा ही नहीं है, वहां पर उपाय क्‍या हो सकता है?"

किवाड़ की ओट में खड़ी हुई रामदेई ये बातें सुन रही थी। इस विषय में वह अपनी इच्‍छा को रोक न सकी, और बोली, "परंतु लालाजी, वह इच्‍छा उत्‍पन्‍न करना क्‍या आपका कर्तव्‍य नहीं है? उसे पढ़ने लिखने का शौक आप नहीं लगावेंगे, तो और कौन लगावेगा? आज जब इस विषय में उसके साथ कठोरता का बर्ताव करते हैं, तब पढ़ने लिखने की अभिरुचि होना ही कष्‍टसाध्‍य है।"

यह सुनकर विमलप्रसाद ने बहुत देर तक स्‍तब्‍ध रहकर कहा - "भाभी साहबा, आप चाहे जो कहें परंतु मुझे इसमें कुछ लाभ नहीं दिखता है। और प्रयत्‍न करने की अब मेरी इच्‍छा भी नहीं है।"

लक्ष्‍मीचंद्र बोले - "विमलप्रसाद, तुम अपने सुख पर स्‍वयं इस प्रकार से पानी फेरोगे, ऐसा मुझे विश्‍वास नहीं था। यह मैं मानता हूं कि, कभी उसने त्रासित होकर तुम्‍हें कुछ उल्‍टा सीधा उत्तर दे दिया होगा। परंतु क्‍या छोटी सी भूल पर ख्‍याल करके उसका अकल्‍याण और अपना अहित कर डालने को तैयार हो जाना बुद्धिमानी है? मुझे तो भाई यह खासा दिया तले अंधेरा दिखता है। "लोगों को प्रयत्‍न करना चाहिये। अपनी स्त्रियों को सुशिक्षित बनाना चाहिये, उन्‍हें विद्या पढ़ने का शौक लगाना चाहिये," निरंतर इस प्रकार लंबी-लंबी स्‍पीचें झाड़ने वालों को अपनी पत्‍नी की एक थोड़ी-सी भूल से क्‍या इस प्रकार हताश होके बैठ जाना चाहिये? मुझे अपने घर के द्वारा जो कुछ परिचय मिला है, उससे यह भी ज्ञात नहीं हुआ है कि, तुम्‍हारी पत्‍नी कुछ अधिक हठीली है। ऐसी अवस्‍था में एक गई बीती बात का ख्‍याल करके अपने कर्तव्‍य का पालन नहीं करना, मुझे तो ठीक नहीं दिखता है।"

इसके उत्तर में विमलप्रसाद ने कुछ नहीं कहा। वे चुपचाप उठकर अपनी कोठरी में चले गये। उनके जाने पर रामदेई ने अपने स्‍वामी से कहा, "आपको यह विषय इतना नहीं बढ़ाना चाहिये था। मुझे तो ऐसा मालूम पड़ता है कि, उन दोनों के बीच में कोई ऐसी घटना हो गई है, जो अपने से कहने के योग्‍य नहीं होगी।"

"अपने से भी नहीं कहने योग्‍य घटना? भला ऐसी क्‍या बात होगी?"

"कुछ भी हो, उससे हमें कुछ मतलब नहीं है। अब तो मेरे जी में ऐसा आता है कि, जो विमलप्रसाद से न हुआ है, उसे मैं करके बतलाऊं।"

"अर्थात् आप उसे लिखना पढ़ना सिखला के पंडिता बनावेंगी!"

रामदेई ने कहा- "दूसरों को पंडिता बनाने के लिये स्‍वयं भी तो पंडिता होना चाहिये! केवल लिखना पढ़ना सीखने से ही यदि स्त्रियां पंडिता हो सकती हैं, तो फिर आप लोग इतनी परीक्षा पर परीक्षायें किस लिये देते हैं?"

"अस्‍तु इस बात को जाने दो, पर यह तो कहो कि, प्रयत्‍न करने का निश्‍चय तो हो चुका न?" लक्ष्‍मीचंद्र ने हंसते हुए पूछा।

"देखिये क्‍या होता है। मेरा विचार तो है कि, जो कुछ करूं विमलप्रसाद से छुपाकर करूं।"

रामदेई ने नर्मदाबाई को विद्या की अभिरुचि उत्‍पन्‍न कराने का निश्‍चय तो कर लिया, परंतु उसका प्रारंभ किस प्रकार से करना और उसमें सफलता होगी कि नहीं? यह सब छुपके कब तक होगा? आदि सब बातों का वह रात दिन विचार करने लगी। महीने भर तक ऐसा कोई भी अवसर हाथ न आया, जिसमें वह कुछ प्रयत्‍न करती। एक दिन रविवार को विमलप्रसाद और लक्ष्‍मीचंद्र दोपहर को अपने एक मित्र से मिलने को गये थे। और कह गये थे कि, हम लोग संध्‍याकाल तक लौट के नहीं आवेंगे। रामदेई अपनी कोठरी में भारतमित्र का ताला अंक पढ़ रही थी। उसमें कहीं का एक चित्र भी था। नर्मदाबाई का रामदेई की कोठरी में पैर रखते ही उसी पर ध्‍यान गया।

"क्‍यों जीजी, यह तुम्‍हारे हाथ में काहे की तसबीर है।"

रामदेई ने कहा, ‘कौन? यह जो मैं बांचती हूं? यह तो भारतमित्र है -‘

"भारतमित्र क्‍या, और उसमें यह तसबीर किसकी है? भला इसके पढ़ने से फायदा क्‍या होता है?"

"नर्मदाबाई, देखो, यह पत्र बहुत अच्‍छा है। इसके पढ़ने से मनोरंजन होता है, और सैकड़ों नई-नई बातें मालूम होतीं हैं। कभी कभी इसमें ऐसे ऐसे अनेक चित्र भी आते हैं। इसी को बांचने से मैं अपने देश की बनी हुई चीजों को बर्ताव में लाने लगी हूं। उस दिन तुमने पूछा था कि, तुम ये भद्दी चूडि़यां क्‍यों लेतीं हो, मेरी जैसी अच्‍छी नगीनें जड़ी हुईं क्‍यों नहीं लेती, सो उसका सबब यही था कि, तुम्‍हारी चूडि़यां विलायती और सरेस लगी हुई थी, और मेरी देश की बनी हुई थीं। यह पत्र न पढ़ती, तो मुझे ये बातें कैसे मालूम पड़तीं?"

नर्मदाबाई ने कहा- "मैं तुम्‍हें प्रत्‍येक रविवार को यही पत्र पढ़ती हुई देखती हूं। सो तुम इसे रविवार को ही क्‍यों बांचती हो? क्‍या एक पत्र बांचने का इतने रविवार लगते हैं? फिर और दूसरे पत्र जो तुम्‍हारे यहां आते हैं, उन्‍हें कब बांचती होगी?"

यह प्रश्‍न सुनकर रामदेई को हंसी आई जाती थी, परंतु उसे उसने बड़े प्रयत्न से दबा कर कहा - "अजी! मैं कुछ एक ही पत्र हर रविवार को नहीं बांचती हूं। किंतु हर रविवार को इसका एक नया अंक निकलता है और इसके प्रत्‍येक अंक में नवीन नवीन समाचार रहते हैं।"

"क्‍यों जीजी! तुम्‍हें क्‍या सूत्र सहस्रनाम भक्‍तामर भी बांचना आते हैं?"

"हां आते हैं!"

"बिल्‍कुल मर्दों सरीखे?"

"नहीं, वैसे तो नहीं, परंतु लिखना बांचना अच्‍छा आता है। सूत्र सहस्रनाम भक्‍तामर बांचने से मुझे उनका अर्थ भी समझ पड़ता है। परंतु यह सब मुझे पहले से नहीं आता था। विवाह के पश्‍चात् मुझे घर ही में यह सब सिखलाया है।"

"किसने? क्‍या बाबूजी ने तुम्‍हें सिखलाया है? परंतु क्‍यों जीजी! इतनी पुस्‍तकें पढ़कर अपना स्त्रियों को क्‍या करना है? इसके बिना अपना कुछ अटकता थोड़े ही है!"

"नर्मदाबाई, यह तुम क्‍या कहती हो? देखो, मुझे थोड़ा सा लिखना पढ़ना आता है, तो मेरा कैसा मनोरंजन होता है? आनंद से दिन कट जाता है। काम के समय अपना काम करना और जब न हो तब कोई अच्‍छी सी पुस्‍तक पढ़कर मन बहलाना। इससे बहुत सी नई-नई बातें मालूम पड़ती हैं। देखो, कल ही मैंने स्‍त्रीशिक्षा नाम की पुस्‍तक बांचकर पूरी की है। उसमें अपने रोज के व्‍यवहार की कैसी अच्‍छी अच्‍छी बातें लिखी हैं। अपना घर कैसा होना चाहिये। सफाई के लिये अपने को क्‍या क्‍या खबरदारी रखनी चाहिये, अमुक पक्‍कान्‍न कैसा बनाना चाहिये; अमुक तरकारी में क्‍या क्‍या मसाले पड़ते हैं, चोली कुरती के काट कैसे करना चाहिये, आदि अनेक जानने योग्‍य बातें उसमें लिखी हैं। और यह भी तो सोचो कि, जब अच्‍छी अच्‍छी पुस्‍तकें बांचने से पुरुषों को फायदा होता है, तब स्त्रियों को क्‍यों नहीं होगा?"

"जीजी! इस पर अब मैं क्‍या कहूं? परंतु मेरी माँ तो कहती थी कि, जो लड़कियां किताबें बढ़ना सीख लेती हैं, वे उद्धत हो जाती हैं, घमंडिन हो जाती हैं और बुरी भली चालें सीख जाती हैं। परंतु तुम में तो वैसा एक भी अवगुण नहीं दीखता है।"

"बहिनी, तुम यह क्‍या कहती हो? क्‍या लिखना पढ़ना सीखने से ही ये अवगुण आ जाते हैं, और मूर्ख रहने से नहीं आते? क्‍या मूर्ख स्त्रियां बुरी चाल नहीं सीखती हैं?"

"सो तो कुछ नहीं है, परंतु मेरी मां ने एक बार ऐसा कहा था, इसलिये मैंने तुमसे कह दिया। तुम्‍हारी भलमंसी देखकर तो वह बात निरी झूठ मालूम पड़ती है। अस्‍तु, अब तो मैं जाती हूं, परंतु कल दोपहर को जब मैं आऊंगी, तब यह अखबार थोड़ा सा मुझे बांचकर सुना दोगी क्‍या?"

"हां! हां! बड़ी खुशी से। तुम जब आओगी, मैं तुम्‍हें तब ही बांचके सुना दूंगी।" रामदेई से यह समाधानकारक उत्तर पाकर नर्मदाबाई हर्षित होती हुई अपनी कोठरी में चली गई।

 

पाँचवां परिच्‍छेद

रामदेई बहुत गंभीर विचारवाली थी। अपने सिर पर लिया हुआ काम किस तरह सफल होता है, इसके विषय में वह निरंतर विचार किया करती थी। विमलप्रसाद की सहायता के बिना यह कार्य सिद्ध होना था भी कठिन। परंतु उस कठिनाई की रामदेई ने कुछ भी परवा नहीं की। पहले उसका विचार था कि, लक्ष्‍मीचंद्र की सम्‍मति से यह कार्य करना और इसका परिचय उन्‍हें देते जाना। परंतु पीछे यह सोचकर कि दोनों मित्र हैं, कहीं बातों-बातों में विमलप्रसाद से यह बात कह दी, तो सब आनंद किरकिरा हो जावेगा, उन्‍हें भी इसकी खबर न होने देने का निश्‍चय कर लिया। केवल भारत मित्र के विषय में जो नर्मदाबाई के साथ वार्तालाप हुआ था, वह उसने पति के कानों पर डाल दिया था। पीछे एक चित्त से उसने नर्मदाबाई के पढ़ाने में मन लगाया।

नर्मदाबाई और रामदेई का सौहार्द थोड़े ही दिन में अतिशय सघन हो गया। रामदेई की विनयता, नम्रता, सदाचारिता, उद्योगतत्‍परता, ज्ञान की अभिरुचि, सादगी और रंजायमान करने का स्‍वभाव देखकर नर्मदा को ऐसा मालूम पड़ता था कि, यह कोई विचित्र ही स्‍त्री है, इसलिये वह निरंतर उसके सहवास में रहना ही पसंद करती थी, और पढ़ना लिखना तथा और हजारों बातें सीखा करती थी। धीरे धीरे डेड़ वर्ष व्‍यतीत हो गया। इतने दिनों में क्‍या किया, इसकी कल्‍पना भी उसने अपने पति को न होने दी। उधर टर्म्स शुरु हो गया था, इसलिये दोनों मित्रों को पढ़ने के सिवाय इन बातों की ओर ध्‍यान देने का अवकाश भी नहीं मिलता था।

परीक्षा हो चुकी। परचे दोनों ने अच्‍छे लिखे थे, इसलिये उस दिन लक्ष्‍मीचंद्र और विमलप्रसाद एकत्र बैठे हुए आनंद से गप्‍पाष्‍टक उड़ा रहे थे। रामदेई और नर्मदाबाई भी किवाड़ों की ओट से इनकी गपशप सुन रही थीं। थोड़ी देर में स्‍त्री शिक्षा की चर्चा फिर निकली। जापान में स्‍त्री शिक्षा को अमुक रीति से उत्तेजना दी गई, राजा ने उसमें यों सहायता दी, धनवानों ने यों पारितोषिक दिये, पुरुषों ने यों उद्योग किया, आदि बातें अस्‍खलित रीति से चल रही थीं। इसी बीच में रामदेई ने धीरे से कहा - "आपकी बातों से मुझे एक बात का स्‍मरण हो आया। बहुत दिन से यह विचार मेंरे हृदय में आंदोलित हो रहा है कि, किसी अखबर में विज्ञापन (नोटिस) देकर स्त्रियों से किसी उपयोगी विषय पर निबंध लिखवाना चाहिये।"

यह सुनकर लक्ष्‍मीचंद्र ने हंसते हंसते कहा - "निबंध मंगाना! किसलिये? क्‍या कोई मासिक आसिक पत्र निकालने का विचार हुआ है?"

"यह आपने कैसे जान लिया? मैं क्‍या कहती हूं, सो तो आपने पूरा सुना ही नहीं और लंबा चौंड़ा अनुमान बांधने लग गये।"

बीच में विलप्रसाद ने कहा, "अच्‍छा भाभी जी, आप क्‍या कहना चाहती हैं, सो कहिए!"

रामदेई ने कहा - "यह निबंध केवल स्त्रियों को ही लिखना चाहिये। निबंध पर अपना नाम न लिखकर कोई कल्पित निशान करे भेज देना चाहिये। पीछे उस निशान के साथ अपना नाम एक दूसरे शीलमोहर किये हुए बंद लिफाफे में रखकर भेज देना चाहिये। इस प्रकार आये हुए सब निबंधों में जो उत्तम ठहरेगा, उसे एक उत्तम पारितोषिक दिया जावेगा।"

"ठीक! यह तो सब सुन लिया, परंतु किस विषय पर निबंध लिखवाया जावेगा, सो तो आपने कहा ही नहीं और इनाम की रकम कौन देगा?"

"इनाम पचास रुपये की रखनी चाहिये। और उसके लिये मैं अपनी माँ के दिये हुए रुपयों में से 25 रुपये देने को तैयार हूं! विषय की भी मैंने योजना कर ली है। परंतु लालाजी, उससे आप नाराज तो नहीं होंगे?"

"क्‍यों? मैं नाराज क्‍यों होऊंगा?"

"विवाहित स्त्रियों की शिक्षा इस विषय पर निबंध लिखवाने की मेरी इच्‍छा है, इसलिये!"

"इसमें मैं नाराज क्‍यों होने लगा? आप जिस विषय पर निबंध मंगाती हो, उसे बांचकर कुछ स्त्रियों के विार तो मालूम होंगे! इनाम में 15 रुपये मैं अपनी तरफ से भी दूंगा, परंतु इसमें शर्त यह है कि, निबंध तुम नहीं लिखना!" विमलप्रसाद ने कटाक्ष करके कहा।

लक्ष्‍मीचंद्र मुस्‍कुराते हुए बोले, "हां यह शर्त जरूर होना चाहिये। नहीं तो यदि श्रीमती का ही निबंध पसंद किया गया, तो फिर "गुड़ के गणेश और गुड़ का ही नैवेद्य" हो जावेगा। और इधर बाकी रहे हुए रुपये मुझे देना ही पड़ेंगे, ऐसा जान पड़ता है।"

रामदेई ने कहा - "मैंने यदि निबंध लिखा, तो भी ऐसा कुछ नहीं है कि, मुझे इनाम मिलेगा ही। तो भी आप लोगों के संतोष के लिये मैा यह शर्त स्‍वीकार करती हूं। इनाम किसको देना चाहिये, यह निर्णय करना आप दोनों की मुंसिफी पर है।"

 

छठा परिच्‍छेद

रामदेई की इच्‍छानुसार दो तीन अखबारों में विज्ञापन निकलने लगा। इस समय रामदेई को पहले की अपेक्षा ज्‍यादा समय की आवश्यकता थी; क्‍योंकि अब दोनों की परीक्षा का समय निकट आ गया था। परंतु इन दिनों समय बहुत कम मिलने लगा। क्‍योंकि परीक्षा हो जाने के कारण विमलप्रसाद आदि दोपहर को भी घर पर रहते थे; इसलिये बहुत थोड़े समय के लिये इनका सहवास हो सकता था। रामदेई को इसकी बड़ी चिंता हो गई। इतने ही में एक अनपेक्षित अवकाश पाने का समय आ गया। विमलप्रसाद के घर से एक जरूरी चिट्ठी आने से दोनों मित्र जबलपुर चले गये। पति विरह से उन पतिव्रताओं को खेद तो हुआ, परंतु विद्याभ्‍यास के उत्‍साह में उन्‍होंने उसे अधिक नहीं गिना।

ग्‍यारहवें दिन दोनों मित्र लौटकर इलाहाबाद आ गये। उसी दिन की डाक में भारत मित्र के संपादक की चिट्ठी के साथ साथ स्त्रियों के निबंध आये। संपादक ने लिखा था - "अवधि के भीतर ये पांच निबंध आये हैं; सो आपके पास भेजे जाते हैं। अनमें से नं. 2 के निबंध को मैंने इनाम के योग्‍य पसंद किया है, जिसे नीचे "दिया तले अंधेरा" ऐसा नाम लिखा हुआ है। आप लोग इन्‍हें पढ़कर फल प्रकाशित कीजिये।" नोटिस में निबंध भारत मित्र संपादक के नाम से भेजने को लिखा गया था, इसलिये वे उनके पास होकर लक्ष्‍मीचंद्र के पास आये थे।

दो तीन दिन में विमल और लक्ष्‍मीचंद्र ने 3-4 और 5 नंबर के निबंध बांच डाले थे। पहला और दूसरा निबंध रहा था, सो उसे बांचकर इनाम का फैसला करना था। इसलिये एक दिन रात को 8 बजे दोनों मित्र जजमेंट देने के लिये बैठे। रामदेई तो इसके लिये बहुत आतुर हो रही थी। परंतु इनके जी में कुछ संदेह उत्‍पन्‍न न हो जावे, इसलिये उसने अपनी इच्‍छा को रोक रक्‍खा था। यह जान कर कि, थोड़ी ही देर में इसका फल प्रकट होने का है और मेरी गुप्‍तमंत्रणा प्रकट होने वाली है, उसका जी उछलने लगा। नर्मदाबाई को अपने समीप बिठाकर वह निबंध सुनने की प्रतीक्षा करने लगी।

पहला निबंध बांचना शुरू किया गया। परंतु थोड़ी ही देर में उसे सुनते सुनते सबका जी ऊब गया। इसलिये विमलप्रसाद ने उसे केवल 15-20 मिनट में शीघ्रता से बांचकर पूरा कर दिया अब दूसरे का बांचना शुरू हुआ। एक सुयोग्‍य संपादक ने उसे इनाम के योग्‍य ठहराया था, इसलिये उसके विवेचन पर सबने विशेष ध्‍यान लगाया। निबंध बांचते समय विमलप्रसाद की मुखचर्या में अनेक बार अंतर पड़ा। बांचते बांचते वे कई जगह अटके भी। उन्‍हें ऐसा मालूम पड़ता था कि; किसी मार्मिक लेखक ने यह सब मुझे ही लक्ष्‍य करके लिखा है। स्‍थान के अभाव से हम यहां पर उक्‍त निबंध की मुख्‍य मुख्‍य बातें उद्धृत करते हैं :

"विवाहित स्त्रियों की शिक्षा" यह विषय मुझे बहुत कठिन मालूम पड़ता है। परंतु अपनी एक बहिन के आग्रह से मैं इसे लिखती हूं, पारितोषिक की आशा से नहीं।"

"विवाहित स्त्रियों की शिक्षा के उत्तरदाता वास्‍तव में यदि देखा जावे, तो उनके पति हैं। परंतु अपने इस उत्तरदायित्‍व पर ध्‍यान देने वाले पति हमारे समाज में बहुत थोड़े हैं। मैं यह नहीं कहती हूं कि, सुशिक्षित पुरुष स्‍त्रीशिक्षा को नहीं चाहते हैं। नहीं, वे चाहते हैा। परंतु आलस्‍य से कहो, अथवा किसी अदूरदर्शिता से कहो; वे इस ओर अपना ध्‍यान नहीं देते हैं! इसलिये स्‍त्री शिक्षा की उन्‍नति नहीं होती है। अनेक सुधारणाओं में आज स्त्रियों की ओर से अड़चनें उपस्थित होती हैं। परंतु यदि वे उनकी अज्ञानता से होती हैं, तो फिर वह अज्ञानता दूर करना उनके पतियों का नहीं, तो और किसका कर्तव्‍य है? पुरुषों को चाहिये कि वे अपनी स्त्रियों को विद्या का शौक लगावें, केवल सुधार सुधार चिल्‍लाने से और संसार की सुधारना करने की डींग मारने से कुछ लाभ नहीं है।"

"प्रत्‍येक सुशिक्ष्ज्ञित पति को सबसे पहिले अपनी स्‍त्री को शिक्षिता बनाने के काम में लगना चाहिये। इस कार्य में यदि स्त्रियां प्रतिबंधक हों, वे अपना दुराग्रह प्रकट करें, तो भी पुरुषों को उनमें विद्याभिरुचि उत्‍पन्‍न करनी चाहिये। हमारे विचार बहुत ऊंचे हैं, और हमारी स्‍त्री को कुछ भी अकल नहीं है, घमंड में रहने से बड़ी भारी हानि होती है।"

"शिक्षा किस प्रकार की देना चाहिये, यह एक कठिन प्रश्‍न है। परंतु अपनी बुद्धि के अनुसार मैं इसका केवल यही उत्तर समझती हूं कि, जिस प्रकार की शिक्षा से स्त्रियों की मानसिक शक्तियों का विकास हो- उनका चरित्र निर्मल निष्‍कपट परार्थतत्‍पर उदार और नीतियुक्‍त बने और वे अपनी संतान को बुद्धिमान धर्मात्‍मा और देशभक्‍त बना सकें, उसी प्रकार की शिक्षा स्त्रियों के लिये उपयोगी होगी। उसे चाहे कोई अपनी मातृभाषा में दे, चाहे संस्‍कृत अंग्रेजी आदि में दे। हां, यह अवश्‍य है कि, वर्तमान में हमारे समाज की जो अवस्‍था है, उस पर विचार करने से स्त्रियों को अपनी मातृभाषा में ही शिक्षा देना लाभकारी होगा। उन्‍हें इतना समय नहीं मिल सकता है कि, वे अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा का अच्‍छा ज्ञान प्राप्‍त कर सकें। पर इसका मतलब यह नहीं है कि, स्त्रियों को अंग्रेजी पढ़ाना ही नहीं चाहिये। यदि समय हो और सुभीता हो, तो उसे भी अवश्‍य पढ़ाना चाहिये। धर्मविद्या का अच्‍छा ज्ञान प्राप्‍त करने के लिये स्त्रियों को संस्‍कृत पढ़ना भी आवश्‍यक है। स्त्रियों के हाथों में ख्‍याल चौबोले वगैरह की घृणित पुस्‍तकें तथा व्‍यर्थ समय खोनेवाली तिलिस्‍मात आदि उपन्‍यास की पुस्‍तकें न जाने देना चाहिये। जिन्‍हें अपनी स्त्रियों को सदाचारिणी और उत्त विचारों वाली बनाना हो, उन्‍हें ऐसी घृणित पुस्‍तकों से स्त्रियों को बचाना चाहिये।

"मामूल लिखने बांचने तथा सीना पिरोना आने लगने को मैं स्‍त्री शिक्षा नहीं कहती हूं। पति को अपनी स्‍त्री में इतनी पात्रता लानी चाहिये, जिसमें वह अपने विचार समझ सके। प्रत्‍येक विषय में दोनों को वादविवाद करना चाहिये। और गृहस्‍थीसंबंधी विषय दोनों को एक दृष्टि से देखना चाहिये। कोई एक आंदोलन उठने पर स्‍त्री के उस विषय में प्रश्‍न करने पर यह कह देना कि, ‘तू इस विषय में कुछ समझेगी नहीं,’ स्‍त्री पर अन्‍याय करना है। इसलिये इस निबंध को पूर्ण करने के पहले मैं एक बार फिर कहती हूं कि, स्‍त्री शिक्षा की सब जवाबदारी पुरुषों पर है। स्‍त्री शिक्षा की उन्‍नति न होने में मुख्‍य कारण पुरुष ही हैं। सामाजिक सुधारणाओं में सित्रयों की ओर से जो विघ्‍न पड़ते हैं, उनके भी मूल कारण पुरुष ही हैं। मैं यह नहीं कहती हूं कि, सब दोष पुरुषों का ही है। तो भी दोषों का सबसे बड़ा भाग उन्‍हीं की ओर है, ऐसा मैं अपने अनुभव से कहती हूं।"

निबंध के अंतिम शब्‍द सुनकर सब लोग स्‍तब्‍ध हो रहे। दोनों मित्र एक दूसरे की ओर देखने लगे। रामदेई बड़ी भारी उत्‍सुकता से यह देखने लगी कि, देखें, कौन पहले बोलता है और क्‍या बोलता है। परंतु जब दो तीन मिनट बीत गये, किसी ने कुछ भी नहीं कहा, तब रामदेई ने बेचैन होकर पूछा, लालाजी, तो क्‍या अब निबंध लिखनेवाली स्त्रियों के नाम नहीं सुनाये जावेंगे और इनाम किसको दी जावेगी, इसका निर्णय नहीं होगा?"

लक्ष्‍मीचंद्र ने कहा, "हां! हां! यह तो होना ही चाहिये। मेरी समझ में तो नंबर दो को ही इनाम मिलना चाहिये। क्‍योंकि उसकी लेखिका ने सब बातें अपनी अनुभव की हुई लिखी हैं।"

विमलप्रसाद ने कहा, "मालूम तो ऐसा ही होता है। निबंध अच्‍छा है। कहीं कहीं संगति नहीं मिलती है, तो भी उसके विचार अच्‍छे हैं। और फिर इसमें हम सरीखों की तो खूब ही खबर ली गई है। मेरी समझ में इसके साथ नंबर एक को भी थोड़ा सा इनाम देना चाहिये। अच्‍छा तो अब मैं ये लिफाफे खोलता हूं।"

विमलप्रसाद ने लिफाफे खोलना शुरू किया कि, नर्मदाबाई रामदेई के कान में कुछ धीरे धीरे कहकर उठ गई! परंतु विमलप्रसाद ने उस ओर नहीं देखा। पहले नबंर का लेख "जानकीबाई-गौरीशंकर त्रिपाठी-सागर" का लिखा हुआ था, ऐसा मालूम हुआ। पश्‍चात् दूसरा लिफाफा खोला गया। उसमें लिखे हुए नाम को देखकर विमलप्रसाद चकित स्‍तंभित हो रहे। उनके मुंह से एक अक्षर भी निकलना कठिन हो गया। हाथ कांपने लगे। इधर रामदेई ने अपने मुंह को लंबे घूंघट में ढंक लिया था। यह लीला देखकर लक्ष्‍मीचंद्र ने बड़ी उत्‍सुकता से पूछा - विमलप्रसाद, है क्‍या? तुम नाम क्‍यों नहीं बांचते हो?"

विमलप्रसाद ने एकाएक चौंककर कहा, "यह निबंध-यह निबंध श्रीमती नर्मदाबाई बाबू विमलप्रसाद जी-इलाहाबाद का लिखा हुआ है।"

"कौन नर्मदाबाई? क्‍या आपकी नर्मदाबाई? उसने लिखना-पढ़ना कब सीख लिया? क्‍या उसने यह निबंध लिखा है?" लक्ष्‍मीचंद्र ने आश्‍चर्ययुक्‍त होकर पूछा।

"मुझे क्‍या खबर है? भाभीजी, यह गोरख धंधा तुम्‍हें अवश्‍य मालूम होगा? यह कौन नर्मदाबाई है और यहां तुम्‍हारी नर्मदाबाई थी, सो कहां चली गई?" विमलप्रसाद ने बड़ी उत्‍सुकता से अपने प्रश्‍न का उत्तर चाहा।

"नर्मदाबाई थोड़ी देर पहले यहां से उठ गई है? क्‍योंकि उसे मालूम था कि, कुछ समय पीछे ही यह कौतुक होनेवाला है?"

"तो क्‍या सचमुच यह निबंध उसी ने लिखा है? उसमें इतनी योग्‍यता कहां से आ गई? और मुझे अभी तक इसकी खबर क्‍यों नहीं लगी?"

"तुम्‍हें खबर करने के लिये ही तो यह निबंध का स्‍वांग रचा गया था? लालाजी, जब आप वारंवार कहने पर भी उस बेचारी का कल्‍याण करने के लिये तत्‍पर न हुए, तब मुझे आखिर यह विचार करना पड़ा, जिस में आज आप थोड़ी बहुत सफलता देख रहे हैं?"

"यह तो तुमने गजब का काम किया है, जो इस विलक्षण बात की हवा भी तुमने मेरे कानों तक नहीं आने दी। उस दिन भारत मित्र की बात से यह तो मैं जान चुका था कि, तुमने पढ़ाने का निश्‍चय कर लिया है, परंतु पीछे तुमने क्‍या किया, उससे सर्वथा अपिरिचित ही रहा।"

रामदेई ने कहा, "बस, भारत मित्र की घटना के दूसरे दिनसे ही मैंने पढ़ाने का काम प्रारंभ कर दिया था। नर्मदाबाई की बुद्धि तीक्ष्‍ण है, इसलिये छह महीने में ही उसे लिखते पढ़ते बनने लगा था। और फिर एक वर्ष तक तो उसने खूब ही परिश्रम किया। मुझे कुछ अधिक श्रम नहीं पड़ा।"

इसी समय नर्मदाबाई ने एक ओर से आकर कहा - "जीजी, अधिक श्रम नहीं पड़ा! ऐसा मत कहो। आपने अपरिमित परिश्रम किया है। एक दिन त्रासित होकर मैंने भूल से कुछ उत्तर दे दिया था, इसलिये शिक्षितों के ख्‍याल में तो मेरी शिक्षा की बात करना ही पाप समझा जाने लगा था! ऐसे समय में यदि आपने मुझे विद्या का व्‍यसन न लगाया होता, तो मैं सर्वथा मूर्ख बनी रहती। यह अभी तक कुछ भी नहीं हुआ होता।"

"भाभी सा, आपकी मैं मुंह पर क्‍या प्रशंसा करूं? मैंने निराशा के कारण जो बड़ी भारी भूल की थी, उसे आपने ऐसी रीति से सुधारी है कि मैं उसे जन्‍मपर्यंत नहीं भूलूंगा। जो बात एक दिन असंभव जान पड़ती थी, आज उसे प्रत्‍यक्ष देखकर मुझे जो आनंद हुआ है, वह वचन से नहीं कहा जा सकता है। आज आपने, सच कहता हूं कि, मुझे एक नवीन ही नर्मदा दी है। मैं एक नवीन ही संसार में आ गया हूं।"

इसी आनंद के समय में एक पड़ोसी ने आकर खबर दी कि, "लक्ष्‍मीचंद्र और विमलप्रसाद दोनों एल.एल.बी की परीक्षा में उत्तीर्ण हो गये।" यह सुनकर उन दंपतियों को जो आनंद हुआ, उसका अनुमान पाठक स्‍वयं करें।

(1912)


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में नाथूराम प्रेमी की रचनाएँ